Friday, April 27, 2012

कुछ छन्द


कुछ   छन्द

यूँ नदी के किनारे बहुत हैं मगर,
आसमाँ में सितारे बहुत हैं मगर,
ज़िंदगी में ही सुकूं के ही दो पल नहीं,
वैसे ढेरों नज़ारे बहुत हैं मगर.

हमने चाही थी यारी मिला हमको क्या,
की थी सच की सवारी मिला हमको क्या,
देश को लूटते थे जो अब तक यहाँ,
आज वो हैं पुजारी, मिला हमको क्या.

पुस्तकों से जिन्हें कोई मतलब नहीं,
भाषा विज्ञान से कोई मतलब नहीं,
गीत, कविता, ग़ज़ल आज वो गढ़ रहे,
जिनको साहित्य से कोई मतलब नहीं.

सब इधर का उधर आज क्यों हो रहा,
जो नहीं होना था वो ही क्यों हो रहा,
सोचना था तुम्हे पाप करते समय,
अब ये क्यूँ पूछते हो, ये क्यूँ हो रहा.
©सुशील मिश्र
25/04/2012

Sunday, April 22, 2012


दिलों के दर्द की ये दास्ताँ तुमको सुनाता हूँ,
हिमालय से, समन्दर तक का फासला तुमको दिखाता हूँ,
बहुत तड़पन, चुभन, रुसवाइयां हैं साथ में फिर भी,
मोहब्बत की हकीक़त को मै यूँ ही गुनगुनाता हूँ.

© सुशील मिश्र

Thursday, April 19, 2012

तुम्हे हो मुबारक


तुम्हे हो मुबारक

घुटन से भरी ज़िंदगी हो मुबारक,
चमन जिसमे तूफां वो तुमको मुबारक,
बहुत भाव से जिनका स्वागत किया है,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

गैरत को जिसने यूँ रुसवा किया है,
जिसने हमेशा तमाशा किया है,
मोहब्बत को, हमेशा ही खिलवाड़ समझा,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

लोकतंत्र का जिन्होंने ज़नाज़ा उठाया,
दुनिया के आतंकियों को सर पे बिठाया,
अमन का जिन्होंने वजूद मिटाया,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

जो अपने रहनुमाओं को बमों से उड़ायें,
तुम्हारे दुश्मनों से ही दोस्ती बढ़ाएँ,
और फिर तुमको अमन भी सिखाएं,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

सोते हुए सैनिकों पे जो गोली बरसायें,
पकड़े जाएँ तो दुनिया भर में चिल्लाएं,
और सुबह फिर से वो ही मोहब्बत सिखाएं,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

कलम का नियम है आईना दिखाना,
जो सच्चाई है उसे सीधे बताना,
सियासत का नियम सियासत ही जाने,
जो कलम ने बताया वो माने या ना माने.

गर माना तो मुल्क रहेगा सलामत,
अगर ना माना, तो फिर वाही  पुरानी अदावत,
हांथों में खंजर ज़बां से ही यारी,
गर इसी बात की है तुम्हे बेकरारी.
तो यकीनन,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

घुटन से भरी ज़िंदगी हो मुबारक,
चमन जिसमे तूफां वो तुमको मुबारक,
बहुत भाव से जिनका स्वागत किया है,
ऐसे पड़ोसी तुम्हे हो मुबारक.

© सुशील मिश्र
19/04/2012

Saturday, April 14, 2012

VIDROH


मित्रों आज बहुत दिनों बाद एक पूरी कविता लिखी, आपकी टिप्पणियाँ आमंत्रित हैं.......

इस कविता की भूमिका में दो पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा.

ऊपर हिम (बर्फ) से ढकी हुई हैं ये पर्वतमालायें,भीतर भीतर सुलग रही हैं प्रलयंकर ज्वालायें.


प्रस्तुत है कविता.......



विद्रोह.



भूख, दरिद्रता, उपेक्षा और अन्याय,

जहाँ यही सब होने लगे प्रतिपल.
अशिक्षा, तमस, अंधकार और विघटन,
जब यही बन जाएँ किसी का आज और कल.
घरों के नाम पर जिन्हें हमेशा मिलता रहे विस्थापन,
राजनीति ने जिनके साथ हमेशा किया हो छल.
अपनी ज़मीन, अपने खेत और अपनी फसलों के लिए,
जो तडपते रहे पल पल.
अपने कुटुंब, अपने बच्चों, अपने समाज की मज़बूरी देखकर,
जो होते रहे विकल.



जब वो देखता है की इसी देश में,
कुछ लोग हैं जो कीमती टाई लगाकर इठलाते हैं.
और एक वह स्वयं है जिसे अपने शरीर को ढकने के लिए,
एक धोती तक का नहीं है आलंबन.
किसी का बच्चा मोदक (लड्डू) को लात मारता है,
क्योंकि उसको मोदक नहीं लग रहा रुचिकर,
और एक उसका स्वयं का बच्चा है, जिसकी रूचि और अरुचि का तो छोडिये,
प्राण रक्षा के लिए ढूध तक नहीं है मयस्सर.



इतना अत्याचार, इतनी अवमानना और इतनी विकलता,
यह सब देखकर, वह क्रोध में जलता है,
भीतर ही भीतर घुटता है, पिसता है, अकुलाता है,
और यहीं से विद्रोह जन्म पाता है,
यहीं से विद्रोह जन्म पाता है,
यहीं से विद्रोह जन्म पाता है...

© सुशील मिश्र.

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