Tuesday, March 26, 2013

दूरियों की समझ


दूरियों की समझ

ज़िंदगी से दूर हुए तो ज़िंदगी समझ में आई,
अपनों से दूर हुए तो अपनाईस समझ में आई.
फासलों पर हमेशा तोहमत क्यों लगाता है ज़माना,
खुद से दूर हुए तभी तो ख़ुदाई समझ में आई.

मोहब्बत की तुमने, तभी उसकी सज़ा भी पाई.
जो अदावत की, तो देख ली दुनिया की रुसवाई.
इल्ज़ाम क्यों देते हैं हम दूरियों को हमेशा,
दूरियां थीं तभी तो नज़दीकियों की कीमत समझ में आई.

चाँद बहोत दूर है हमसे,
फिर भी उसकी चमक ज़मीं तक आई.
सितारे दूर आसमाँ में टिमटिमाते हैं,
पर झलक हमनें यहाँ भी पाई.
फर्क सिर्फ हमारी सोच का है,
दिमाग से जो जाले हटाकर देखें.
भगवान तो हम सबके दिलों में है,
ये तो सभी लोग जानते हैं.
फिर भी ये बात घर से दूर,
मंदिर में जाकर समझ में आई.

ज़िंदगी से दूर हुए तो ज़िंदगी समझ में आई,
अपनों से दूर हुए तो अपनाईस समझ में आई.
फासलों पर हमेशा तोहमत क्यों लगाता है ज़माना,
खुद से दूर हुए तभी तो ख़ुदाई समझ में आई.

© सुशील मिश्र.
26/03/2013

Sunday, March 24, 2013

सियासत का रंग



सियासत का रंग

ज़माना तो वैसे भी किसी का सगा नहीं होता,
तटस्थ रहा है हमेशा किसी के लिए बेवफा नहीं होता.
ये तो दिल है जो उनसे वफ़ा की आस लगाए बैठा है,
नहीं तो ये मज़मा भी हमेशा खफ़ा नहीं होता.

एक ज़माना था जब हम भी उनकी मुस्कुराहट पे,
दिलो-जाँ निसार करते थे.
और हमें इस बात का यकीन भी था,
कि वो केवल हमपर ही ऐतबार करते थे.
मुस्कराहटें बेदाम बेमिसाल थीं उनकी,
ऐसा दावा था हमारा.
वो तो हमें बहुत बाद में पता चला कि हम अकेले नहीं हैं,
उनके मुआमले में ऐसे दावे तो हजार किया करते थे.

मुकद्दर बांचने वालों ने बहुत पहले बताया था मुझे,
की यहाँ कोई किसी का हमेशा दुश्मन नहीं होता.
और ये तो सियासत का बहुत पुराना फलसफा है,
की यहाँ पर दोस्त भी कोई हमेशा नहीं होता.
एक हम है जो निकले थे बारिश में ये सोचकर,
कि ज़माने से अपने आंसू छुपा ले जायेंगे.
मगर हम ये भूल गये की ये तो साहूकारों की बस्ती है,
यहाँ कभी भी असल और ब्याज का हिसाब एक सा नहीं होता.

ज़माना तो वैसे भी किसी का सगा नहीं होता,
तटस्थ रहा है हमेशा किसी के लिए बेवफा नहीं होता.
ये तो दिल है जो उनसे वफ़ा की आस लगाए बैठा है,
नहीं तो ये मज़मा भी हमेशा खफ़ा नहीं होता.

© सुशील मिश्र.
24/03/2013

Saturday, March 23, 2013

वन्देमातरम



वन्देमातरम

हे ज्ञान की वरदायिनी दे ज्ञान वन्देमातरम,
अभिमान वन्देमातरम स्वाभिमान वन्देमातरम .
उद्घोष के संघोष का संतोष वन्देमातरम.
परितोष के वरदान का है ज्ञान वन्देमातरम.


अच्युत युधिष्ठिर कर्ण का सम्मान वन्देमातरम ,
है भीम का पौरुष पराक्रम मान वन्देमातरम.
गाण्डीव की टंकार की हुँकार वन्देमातरम,
अब चहुँ दिशा में गूंजता है गान वन्देमातरम.


गुँजित धरा के गुन्जनों से तृप्त वन्देमातरम,
है भीष्म के सुकृत सभी संतृप्त वन्देमातरम.
दानव दनुज की काट का उच्चाट वन्देमातरम,
है आन वन्देमातरम और शान वन्देमातरम.


है राम के संतोष का उद्घोष वन्देमातरम,
और जानकी के त्याग का उद्भाष वन्देमातरम.
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न का एकात्म वन्देमातरम,
है स्वर्ग भी ऊँचा नहीं यह धाम वन्देमातरम.

गीता बताती ज्ञान का उत्थान वन्देमातरम,
चौपाईयां भी हैं सुनाती आन वन्देमातरम.
साईं और नानक कह गये बस नाम वन्देमातरम,
है कलिसमय में बस यही एक ज्ञान वन्देमातरम.

राणा शिवा से वीरों का निर्वाण वन्देमातरम,
प्रतिमान वन्देमातरम गतिमान वन्देमातरम.
शोणित बहा वीरों का फिर भी गाया वन्देमातरम,
फांसी चढ़े सूली चढ़े ये त्याग वन्देमातरम.

लक्ष्मी अहिल्या का है ये ईतिहास वन्देमातरम,
रोटी कमल के नारों में था निहित वन्देमातरम.
वीरों के उन बलिदानों का सम्मान वन्देमातरम,
है धीर वन्देमातरम है वीर वन्देमातरम.

पद्मावती के जीवन का है भाष वन्देमातरम,
सतियों के जौहर ने किया था त्रास वन्देमातरम,
मेवाड़ के उत्थान का ईतिहास वन्देमातरम,
मुग़लों के सर्वनाश का है भान वन्देमातरम.

शेखर भगत के गीतों से है महका वन्देमातरम,
वीरों की फुलवारी में फिर से चहका वन्देमातरम.
अंगारों पे चलने का है उत्साह वन्देमातरम,
है श्वांस वन्देमातरम और आस वन्देमातरम.

कारगिल विजय के मान का है ध्यान वन्देमातरम,
उन चोटियों पर जो बहा था रक्त वन्देमातरम.
वीरों ने फिर भी रच दिया ईतिहास वन्देमातरम,
है आस वन्देमातरम विश्वास वन्देमातरम.

सारे जहां में सत्य और विश्वास वन्देमातरम,
बंधुत्व के ईतिहास का उत्थान वन्देमातरम.
हिंसा नहीं हो शान्ति केवल ज्ञान वन्देमातरम,
माता पिता  हों देवता प्रतिमान वन्देमातरम.

एक दूसरे का सुख और दुःख वन्देमातरम,
एक दूसरे पर आस और विश्वास वन्देमातरम.
नीचा दिखाने में नहीं विश्वास वन्देमातरम,
संस्कृति सदा विकसित रहे यह काम वन्देमातरम.

केशव के बलिदानों की है सौगात वन्देमातरम,
एकात्म के ही ज्ञान का प्रस्ताव वन्देमातरम.
हो संगठन की चाह सबमें यह प्राण वन्देमातरम,
बस संघ दिग्घोषित रहे यह चाह वन्देमातरम.

माँ भारती का हो सदा उत्थान वन्देमातरम,
कश्मीर वन्देमातरम पंजाब वन्देमातरम,
आतंक का होता रहे बस नाश वन्देमातरम,
वीरों में फिर से जागरण उत्साह वन्देमातरम.

© सुशील मिश्र.
22/10/2003

Friday, March 22, 2013

नाम


नाम

कल नाम क्या था हमारा इस जहां में,
कोई नहीं जानता,
कल नाम क्या होगा तुम्हारा इस जहां में,
कोई नहीं जानता.
ये तो फितरत की पाकीज़गी है,
जो महकी थी कल भी और महकेगी कल भी.
नहीं तो हमारे जिस्म की मिट्टी कहाँ थी इस जहां में,
कोई नहीं जानता.

ये सब उसका करम है,
तभी तो लोग मानते हैं हमें इस जहां में,
और हमें लगता है की हमको,
हमारे हुनर से सब पहचानते हैं इस जहां में.
सोचो इसी ज़मीं पर,
कितने बेनाम से लोग रहा करते है.
उसकी हमपर दरियादिली तो देखो,
के लोग हमको हमारे नाम से जानते हैं इस जहां में.

© सुशील मिश्र.
    22/03/2013

मिट्टी



मिट्टी

मिट्टी का बदन मिट्टी का कफ़न,
सब मिट्टी में मिल जाएगा.
मिट्टी पर क्या लिखना पढ़ना,
कल सब मिट्टी हो जायेगा.
खेल खेल में नाम तुम्हारा,
उसने मिट्टी पर लिखकर मिटा दिया.
उसको खुद इसका इल्म नहीं,
कल वो खुद मिट्टी हो जायेगा.

© सुशील मिश्र.
21/03/2013

Thursday, March 21, 2013



उम्मीदों का सिलसिला बना रहे ये ज़रूरी है,
खुद पे ऐतबार कायम रहे ये भी ज़रूरी है.
आँधियों का काम है वो तो तबाहियां फैलाएंगी,
लेकिन ज़िंदगी का आगे बढ़ते रहना बहुत ज़रूरी है.

© सुशील मिश्र.
     21/03/2013

Wednesday, March 20, 2013

पथिक


पथिक

हाँथ की इन लकीरों में,
होगा तुम्हें ऐतबार बहुत.
किस्मत भी देगी साथ तेरा,
इसका भी होगा ऐतबार बहुत.
हे पथिक तू रास्तों पे,
ठीक से चलना तो सीख.
हाँथ की लकीरें नहीं, किस्मत भी नहीं,
खुद मंजिल को होगा तेरा इंतज़ार बहुत.

दिल तो बस एक आईना है,
हमारी कारगुज़ारियों का.
लेकिन ये भी करता तो है,
हमसे सवाल ज़वाब बहुत.
मन तेरा अब पूछता है,
तुझसे बार बार यही.
दुर्गम डगर के राहगीर,
क्यों मंजिल पे पहुंचे हैं बहुत.

© सुशील मिश्र.
    20/03/2013

Tuesday, March 19, 2013

समन्दर



समन्दर

समन्दर के बहुत से रूप बिखरे हैं ज़माने में,
फ़साने तुमने भी सुने होंगे उसी गुज़ारे ज़माने में.
मोहब्बत की लगी नें जाने कितने दिल दुखाए हैं,
हमें लग जायेंगी सदियाँ तुम्हें वो वो बताने में.

दिलों के दर्द की परवाह किसको है ज़माने में,
हकीकत और मुगालत की पहँचान किसको है ज़माने में.
उसको बांधकर मज़बूर तुमने किया होगा ज़रूर.
खुशी से कौन करता है यहाँ खिदमत ज़माने में.

बहुत सामान गिरवी क्यों पड़ा है उस खजाने में,
कोई हक़दार उसका क्यों नहीं दिखता ज़माने में.
अभी आते समय देखा बहुत बेबस से चेहरों को,
क्या उनके ही सभी असबाब गिरवी हैं खजाने में.

न जाने राज़ कितने हैं समन्दर के ही सीने में,
न जाने दर्द कितना के गरीबी के पसीने में.
ज़रा एक बार उनकी नाव को लहरों से मिलने दो,
जिन्हें कुछ दम नहीं लगता है लकड़ी के सफीने में.

बहुत अच्छा तुम्हें लगता है ये दौलत दिखाने में,
बहुत अच्छा तुम्हें लगता है ये शोहरत बताने में.
गरीबी भूख लाचारी ने अबतक तुम्हारा घर नहीं देखा,
नहीं तो पसीने छूट जाते हैं यहाँ रोटी जुटाने में.

समन्दर है बहुत गहरा मगर नज़दीक जाने में,
जुबां पर सख्त है पहरा यहाँ सच्चाई बताने में.
जहां के राज की नीति ही हो दलदल में रहने की,
वहाँ पर फर्क ही पड़ता है क्या संसद सजाने में.

समन्दर के बहुत से रूप बिखरे हैं ज़माने में,
फ़साने तुमने भी सुने होंगे उसी गुज़ारे ज़माने में.
मोहब्बत की लगी नें जाने कितने दिल दुखाए हैं,
हमें लग जायेंगी सदियाँ तुम्हें वो वो बताने में.

© सुशील मिश्र.
19/03/2013


Monday, March 18, 2013

राष्ट्रवंदन



राष्ट्रवंदन

राष्ट्रवंदन की प्रथा को हम सभी पोषित करेंगे.
पंथ सुरभित हो सके वह पुष्प अब रोपित करेंगे.

दुःख दावानल जगत में व्याधियों का घर बना है,
संगठन को भूल कर मानस यहाँ आकुल पड़ा है.
भोग लिप्सा अन्तसों में इस तरह जब घर बना ले,
है यही उपयुक्त क्षण हम आत्ममार्जन अब करेंगे.
पंथ सुरभित हो सके..........................................

संस्कृति का क्षरण देखो आज तो चहुंओर होता,
ज्ञान वैभव का निरादर आज तो पुरज़ोर होता.
तमस ही जब ज़िंदगी का एक अविरल रूप ले ले,
तब सुखद संकल्पना से जगत आलोकित करेंगे.
पंथ सुरभित हो सके..........................................


कुछ नये की चाह में अब मूल हमसे दूर होता,
यज्ञ वंदन भूलकर मानव नये उत्सव पिरोता.
स्वयं के हित चिन्तनों में आज हैं हम देश भूले,
प्रण यही अब हो हमारा राष्ट्र को उन्नत करेंगें.
पंथ सुरभित हो सके.........................................

राष्ट्रवंदन की प्रथा को हम सभी पोषित करेंगे.
पंथ सुरभित हो सके वह पुष्प अब रोपित करेंगे.

© सुशील मिश्र.
18/03/2013




Thursday, March 7, 2013

आदमी का दर्द




आदमी का दर्द

प्यार का हर एक लफ्ज़ मुन्तज़िर सा हो गया,
रूहे नादानी बड़ी तो वो कलंदर हो गया.
देख दिल्ली आज तेरा ज़ख्म ही व्यापार है,
हमने जो सच्चाई कही तो बस बवंडर हो गया.

जिस्म को कोई यहाँ अब खुदा का घर कहता नहीं,
मन में सबके राम हैं कोई अब कहता नहीं.
देख ले परवरदिगार तेरी कारस्तानियाँ,
आदमी को आदमी अब आदमी कहता नहीं.

इन्साफ क्या? विश्वास क्या? सबकी यहाँ बोली लगी,
दुनिया बनी बाज़ार है हर एक की बोली लगी.
नवरात्रों का मेला यहाँ तो खूब सजधज से मना,
पर देवियों की आज तो हर चौराहे पे है बोली लगी.

कहीं चोरी कहीं डाका कहीं अस्मत से ही खिलवाड़ है,
जिसपे भरोसा किया वो ही यहाँ बेज़ार है.
बात मुझको अब समझ में ये तो आती ही नहीं,
कालिमा से ही भरा क्यों आज ये संसार है.

सोचें ज़रा समझें ज़रा मन को भी टटोलें ज़रा,
जिस राह पे हम बढ़ रहे उसको भी अब तोलें ज़रा.
वासनाएँ मन की सदा यूँ ही हमें भारमाएं ना,
इंसानियत की भावना मन में तो अब रख लें ज़रा.

कल का सूरज फिर नई ईक रोशनी देगा ज़रूर,
इंसान में इंसानियत का फिर जागेगा एक सुरूर.
देश क्या दुनिया को हमपर ऐतबार यूँ ही नहीं,
उनको यकीं है हम नया एक रास्ता देंगे ज़रूर.

© सुशील मिश्र.
07/03/2013