Sunday, October 30, 2016

दीपोत्सव



दीपोत्सव


मन  में कुटिलता हृदय में मलिनता,
रिश्तों के धागों में अब है जटिलता. 
मधुर भावना से हो यदि सत्य का आग्रह,
दिलों से दिलों तक बहेगी सहजता. 

अमावस घटा है, बहुत कालिमा है,
दुर्दान्त निष्ठुर की ही भंगिमा है. 
विश्वास मन में भरत सा जगाएं,
युगों की मनुज से यही याचना है. 

अंतः कि  ज्योति जगत में प्रसारें,
युगों की मलिनता को अब तो बिसारें. 
तमस का साम्राज्य तो एक जुगनू से हारा,
दीपोत्सव के मंगल से जग को निखारें. 


...सुशील मिश्र 
   30/11/2016

Sunday, May 22, 2016

नीयत और ज़हनीयत

नीयत और ज़हनीयत

  
नीयत तो ठीक है,
पर ज़हनीयत भी साफ़ होनी चाहिए.
रौशन मुकद्दर की कसौटी के लिए,
हवा भी खिलाफ होनी चाहिए.
कमरे में रखा चिराग,
रौशनी तो खूब देता है.
पर उसके वजूद की ख़ातिर,
वहां पे तीरगी भी होनी चाहिए.

हंसी तक तो ठीक है,
पर उसके दर्द का भी आभास होना चाहिए.
दो चार मीठी बातें की और निकल गए,
आपको तो अपने फ़र्ज़ का भी एहसास होना चाहिए.
माना की आप बहुत फिक्रमंद नहीं थे उसके लिए,
और इसका ज़िम्मेदार भी वही था.
पर ऐसा कहाँ लिखा है,
की एक खरबूजे को देखकर दूसरे को रंग बदलना ही चाहिए.

वो इस गम में हँसते ही नहीं,
की कल कहीं रोना न पड़े.
और पूरे बाज़ार से कुछ खरीदते ही नहीं,
की कल कहीं खोना न पड़े.
इक घरौंदा भी नहीं बनाया आजतक,
बस इसी कश्मकश में.
ज़लज़ला नहीं आएगा ता-उम्र ,
बस इसी बात का उन्हें सुबूत चाहिए.

अन्धेरा बहुत था मेरे घर में,
और दिया भी एक ही था.
कहने का मतलब,
इस घरौंदे में उजाले का आसरा भी एक ही था.
उठा के रख दिया मैंने, उसको भी चौराहे पे,
और कसौटी पे कस दी खुद की ज़िंदगी भी दोराहे पे.
सबब बस एक ही था,
कहीं अँधेरे में रास्ता न भटक जाए मुसाफिर,
पर मुकद्दर तो देखिये मेरा,
अब ज़माने को इस दरियादिली का सुबूत भी चाहिए.

© सुशील मिश्र.

  19/05/2016

Thursday, February 25, 2016

बे-हिसी

बे-हिसी
(senseless, without feeling)

दस्तकें और हिचकियाँ जब तलक मंज़ूर हैं,
गुफ़्तगू में आप – हम तब तलक मशगूल हैं.
मना सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा (है मगर,
दिल की बातें दिल जो समझे बस वही मक़बूल है.

शाख से पत्ते उड़े या जड़ को ही कुछ हो गया,
खुदगर्ज़ियों  में कौम का वो नूर शायद खो गया.
भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह,
दिल में झांकें हम सभी, की ऐसा कैसे हो गया.

रंजिशों तक ठीक था क्यों साजिशों पर आ गए,
मुतमईन इतने हुए के बदमाशियों पे आ गए.
जानते हैं ये कोई नादान हरकत थी नहीं,
बुद्ध गांधी से चले और याकूब पर तुम आ गए.

हममें से ही थे एक वे, जो इस कदर पागल हुए,
घर से चले थे सीखने और खुद ही यहाँ जाहिल हुए.
आग तो है लग चुकी शोला बनाओ मत इसे,
ढूंढो उन आकाओं को जो इनके लिए दलदल हुए.

चालाकियां अइय्यारियाँ माना हुनर हैं आपके,
गुस्ताखियाँ बद्बख्तियाँ माना शज़र हैं आपके.
मुल्क के गद्दार को जो यूँ मसीहा कह रहे,
दिख रहा है सब हमें क्या क्या फिकर हैं आपके.

वक्त का ये सिलसिला यूँ ही नहीं आया यहाँ,
दिन में भी ये स्याह मौसम यूँ ही नहीं छाया यहाँ.
तालीमी इदारे और रहनुमा कुछ खोखले तो हैं ज़रूर,
तभी, अशफाक़उल्ला की जगह अफज़ल गुरु छाया यहाँ.

मुल्क है चौसर नहीं जो मुकद्दर पे छोंड़ दें,
जंग है भभकी नहीं जो खंज़र पे छोंड़ दें.
कानून को इतना कसें की ख्वाब में भी भूलकर,
इस तरफ नज़रें भी तिरछी करने के अरमां छोड़ दे.

कल तलक जो नज़र सरहदों की निगेहबान थी,
कल तलक जो बाज़ुएँ सरहद पे एक ऐलान थीं.
आज ये क्या हो गया, उस आँख से आंसू गिरे,
जिसकी दिलेरी की कहानी दुश्मनों तक आम थी.

आंसू न समझें बस इसे ये ख्वाब का भी खून है,
नाम, नमक और निशान की बेबसी का मजमून है.
मुल्क की खातिर, जो दुश्मन को घुटनों पे लाता रहा,
अपनों ने की है बुज़दिली तभी तो वो ग़मगीन है.

गौर से तो देखिये उसकी आँखों में ज़रा,
साजिशों की बे-हिसी का दिख रहा क्यूँ सिलसिला.
गर सियासत आँख मूंदे बस यूँ ही बैठी रही,
दूर दीखता है नहीं अब ज़लज़लों का काफ़िला.

© सुशील मिश्र.

 25/02/2016

Saturday, February 13, 2016

रावण

रावण


दुनिया में ज़ुल्मतों का बाज़ार ही गरम है,
झूठों फरेबियों पर सरकार क्यूँ नरम है.
कोई वतन के खातिर दिन रात गल रहा है,
गर तू नहीं ये समझा तो ये तेरा भरम है.

विद्या ददाति विनयं बचपन में ही पढ़ा था,
है एकता में शक्ति ये भी तभी पढ़ा था.
ये कौन सा विनय है और कौन सी है विद्या,
कुत्सित स्वरुप जिसका पिछले दिनों दिखा था.

हाँ बात कर रहा हूँ मै उसी जेनयू की,
समाज में बैठे उस वैचारिक बदबू की.
अब भी नहीं जो चेते तो मन्ज़र यही दिखेगा,
धज्जियाँ उड़ायेंगे वे वतन के आबरू की.

इमदाद सब्सिडी पर ये सांप जो पले हैं,
हैं गल्तियाँ हमारी तभी ये फूले-फले हैं.
कानून सख्त कर दो है वक्त की ज़रुरत, वर्ना
क्या मुह दिखाएँगे उन्हें जो बर्फ में गले हैं.

अफ़ज़ल और याकूब की पैरवी जो कर रहे हैं,
राष्ट्रधर्म का मतलब वे जानते नहीं हैं.
हमने कहावतों में ये बात सुन रखी थी,
के लातों के भूत बातों से मानते नहीं हैं.

शिक्षा के मंदिरों में सियासत पनप रही है,
वो भी इतनी गंदी की उसकी वकत नहीं है.
अब भी समय है देखो रस्ते बदल लो वर्ना,
खुद ही बनोगे खुदखुश इसमें ग़ज़ब नहीं है.

इराक सीरिया हो या लीबिया को देखो,
चाहे कुवैत हो या ट्यूनीशिया को देखो.
हाँ आग और तबाही चारों तरफ है बिखरी,
वो बस यहाँ न पहुंचे इस वाकया को देखो.

माँ भारती के सुत हो इसका गुमान रक्खो,
संसद सड़क या सीमा एक इम्तहान रक्खो.
रावण छुपे हुए हैं कुछ नए भेष में फिर,
हांथों में अपने फिर से अब तुम कमान रक्खो.

© सुशील मिश्र.

13/02/16