भरम
ज़माने का पानी सज़ा पा
रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
जो मीठे थे चश्मे खतम
हो रहे हैं,
जो बच भी गये तो सितम
हो रहे हैं.
ये मजमा शराफत को
ठुकरा रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
दिलों के उजाले
अंधेरों में बदले,
साधू यहाँ जब लुटेरों
में बदले.
गुनाहों का बादल तो
अब छा रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
जो कल तक बताते थे
रस्ते जहां के,
वो तो नहीं भटके आकार
यहाँ पे.
तुम्ही को तुम्ही में
फंसाता रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
दहशत अंधेरों को ही
ढो रही है,
असल में सियासत यही हो
रही है.
वतन इनके हाँथों ठगा
जा रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
गुलाबों पे झगड़ा
मशालों पे झगड़ा,
किताबों पे झगड़ा
रिसालों पे झगड़ा.
अमन को भरम ही तो अब
खा रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
ज़माने का पानी सज़ा पा
रहा है,
समन्दर को देखो मज़ा आ
रहा है.
© सुशील मिश्र.
22/09/2013
चश्मा = तालाब/पोखर,
रिसालों = सरकारी कर (Tax)