शमशीर हो गया
हूँ मैं
खामोश परिंदों सा हो
गया हूँ मैं,
अब तो लगता है की,
कहीं खो गया हूँ मैं.
सब मसरूफ़ हैं खुद की
ही सुनाने में,
ऐसा क्यों लगता है,
के मज़बूर हो गया हूँ
मै.
ज़िंदगी ने एक साथ
इतने रंग दिखाए,
कि अब तो लगता है,
बस उसी की तस्वीर हो
गया हूँ मै.
अपनी बातों का फलसफा
मुझे कुछ यूँ दिखा,
कि शबे रात भी,
शहर की तहरीर हो गया
हूँ मै.
अन्याय के खिलाफ
मैंने अभी कदम उठाया ही था,
के दुनिया जहान में,
जाने क्यों शमशीर हो
गया हूँ मैं.
© सुशील मिश्र
21/06/2015