Sunday, May 22, 2016

नीयत और ज़हनीयत

नीयत और ज़हनीयत

  
नीयत तो ठीक है,
पर ज़हनीयत भी साफ़ होनी चाहिए.
रौशन मुकद्दर की कसौटी के लिए,
हवा भी खिलाफ होनी चाहिए.
कमरे में रखा चिराग,
रौशनी तो खूब देता है.
पर उसके वजूद की ख़ातिर,
वहां पे तीरगी भी होनी चाहिए.

हंसी तक तो ठीक है,
पर उसके दर्द का भी आभास होना चाहिए.
दो चार मीठी बातें की और निकल गए,
आपको तो अपने फ़र्ज़ का भी एहसास होना चाहिए.
माना की आप बहुत फिक्रमंद नहीं थे उसके लिए,
और इसका ज़िम्मेदार भी वही था.
पर ऐसा कहाँ लिखा है,
की एक खरबूजे को देखकर दूसरे को रंग बदलना ही चाहिए.

वो इस गम में हँसते ही नहीं,
की कल कहीं रोना न पड़े.
और पूरे बाज़ार से कुछ खरीदते ही नहीं,
की कल कहीं खोना न पड़े.
इक घरौंदा भी नहीं बनाया आजतक,
बस इसी कश्मकश में.
ज़लज़ला नहीं आएगा ता-उम्र ,
बस इसी बात का उन्हें सुबूत चाहिए.

अन्धेरा बहुत था मेरे घर में,
और दिया भी एक ही था.
कहने का मतलब,
इस घरौंदे में उजाले का आसरा भी एक ही था.
उठा के रख दिया मैंने, उसको भी चौराहे पे,
और कसौटी पे कस दी खुद की ज़िंदगी भी दोराहे पे.
सबब बस एक ही था,
कहीं अँधेरे में रास्ता न भटक जाए मुसाफिर,
पर मुकद्दर तो देखिये मेरा,
अब ज़माने को इस दरियादिली का सुबूत भी चाहिए.

© सुशील मिश्र.

  19/05/2016