सच
नगरी नगरी द्वारे
द्वारे कूल किनारे नहीं मिला,
धरती की क्या बात है
प्यारे अम्बर में भी नहीं मिला.
मन के अंदर बैठा है
जो, उसको बाहर ढूढ़ रहे,
फिर कहते हो फल मेहनत
का मुझको क्योंकर नहीं मिला.
अहं मनुज का बहुत बड़ा
है खुद के छोटे ज्ञान पर,
तर्क कुतर्क बहुत
करता है सदियों के विज्ञान पर.
खुद की गलती से न
सीखे और फिर से उसको दोहराए,
बहुत बड़ा बट्टा रखता
वो, खुद के ही सम्मान पर.
सारे प्रश्न उसी से
क्यों हैं जो सच का अनुगामी है,
इसी आड़ में बच जाता
है जो सच में खल कामी हैं.
संभल संभल कर नहीं
चले तो, फिर पीछे पछताओगे,
कुटिल सियासत अक्सर
देती सच्चे को बदनामी है.
ज्ञान बांटना बहुत
सरल है मगर सीखना मुश्किल है,
अपना सबकुछ यहाँ
लुटाकर जगत जीतना मुश्किल है.
इस मायावी दुनिया में
रहकर इतना तो जान लिया,
दीप जलाना बहुत सरल
है जलते रहना मुश्किल है.
© सुशील मिश्र
06/02/2014
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