रावण
दुनिया में ज़ुल्मतों
का बाज़ार ही गरम है,
झूठों फरेबियों पर
सरकार क्यूँ नरम है.
कोई वतन के खातिर दिन
रात गल रहा है,
गर तू नहीं ये समझा
तो ये तेरा भरम है.
विद्या ददाति विनयं
बचपन में ही पढ़ा था,
है एकता में शक्ति ये
भी तभी पढ़ा था.
ये कौन सा विनय है और
कौन सी है विद्या,
कुत्सित स्वरुप जिसका
पिछले दिनों दिखा था.
हाँ बात कर रहा हूँ
मै उसी जेनयू की,
समाज में बैठे उस
वैचारिक बदबू की.
अब भी नहीं जो चेते
तो मन्ज़र यही दिखेगा,
धज्जियाँ उड़ायेंगे वे
वतन के आबरू की.
इमदाद सब्सिडी पर ये
सांप जो पले हैं,
हैं गल्तियाँ हमारी
तभी ये फूले-फले हैं.
कानून सख्त कर दो है
वक्त की ज़रुरत, वर्ना
क्या मुह दिखाएँगे
उन्हें जो बर्फ में गले हैं.
अफ़ज़ल और याकूब की
पैरवी जो कर रहे हैं,
राष्ट्रधर्म का मतलब
वे जानते नहीं हैं.
हमने कहावतों में ये
बात सुन रखी थी,
के लातों के भूत
बातों से मानते नहीं हैं.
शिक्षा के मंदिरों
में सियासत पनप रही है,
वो भी इतनी गंदी की
उसकी वकत नहीं है.
अब भी समय है देखो
रस्ते बदल लो वर्ना,
खुद ही बनोगे खुदखुश
इसमें ग़ज़ब नहीं है.
इराक सीरिया हो या
लीबिया को देखो,
चाहे कुवैत हो या
ट्यूनीशिया को देखो.
हाँ आग और तबाही
चारों तरफ है बिखरी,
वो बस यहाँ न पहुंचे
इस वाकया को देखो.
माँ भारती के सुत हो
इसका गुमान रक्खो,
संसद सड़क या सीमा एक
इम्तहान रक्खो.
रावण छुपे हुए हैं
कुछ नए भेष में फिर,
हांथों में अपने फिर
से अब तुम कमान रक्खो.
© सुशील मिश्र.
13/02/16
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