कुछ छन्द
यूँ नदी के किनारे
बहुत हैं मगर,
आसमाँ में सितारे
बहुत हैं मगर,
ज़िंदगी में ही सुकूं
के ही दो पल नहीं,
वैसे ढेरों नज़ारे
बहुत हैं मगर.
हमने चाही थी यारी
मिला हमको क्या,
की थी सच की सवारी
मिला हमको क्या,
देश को लूटते थे जो
अब तक यहाँ,
आज वो हैं पुजारी, मिला हमको क्या.
पुस्तकों से जिन्हें
कोई मतलब नहीं,
भाषा विज्ञान से कोई
मतलब नहीं,
गीत, कविता, ग़ज़ल आज
वो गढ़ रहे,
जिनको साहित्य से कोई
मतलब नहीं.
सब इधर का उधर आज
क्यों हो रहा,
जो नहीं होना था वो
ही क्यों हो रहा,
सोचना था तुम्हे पाप
करते समय,
अब ये क्यूँ पूछते
हो, ये क्यूँ हो रहा.
©सुशील मिश्र
25/04/2012