सपने
से सोच तक
खुली आँखों से सपने देखना और उस सपने
में,
किसी को नीचे गिरते हुए देखना.
असल में इससे उसका कुछ नहीं बिगडता
है,
जिसको हम सपने में गिरते हुए देखकर, फ़िजूल में खुश हुए जा रहे हैं.
इससे उस व्यक्ति या संगठन (जो कि
खुली आँखों से सपने देखता है),
की कमजोरी, बेबसी
और लाचारी दिखती है.
और उसे हमेशा इस बात का दुःख रहता है,
कि वो सपने वाले आदमी या संगठन को,
सच में गिरता और दुखी होता नहीं देख
पा रहा है.
वास्तविकता में तो वो उसके सपनों के बाहर है,
और वहाँ पर वो लगातार, और खुश, और मज़बूत हुआ जा रहा है.
फिर सपने देखने वाला उसकी एक एक खुशी,
उन्नति और प्रगति देखकर,
स्वयं को दुःख और अंधकार में धकेलता
चला जा रहा है,
और अपने ही हांथों खुद के लिए,
दुःख, अंधकार, विवशता और असफलता रूपी कब्र खोदता जा रहा
है.
तो ज़रा सोचिये, कि हम ये कैसा मंज़र
बना रहे हैं,
हम असल में किस दिशा में जा रहे हैं,
और इस नकारात्मक सोच एवं विध्वंसक
चिंतन से,
अपना मुस्तकबिल (भविष्य) कैसा बना रहे हैं.
आज के मानव समाज कि ये नियति बन गई
है,
झूठ, द्वेष, पाखण्ड और अन्याय उसकी
सोच बन गई है,
वह सपने में भी किसी का भला या अच्छा
नहीं सोच रहा है,
क्योंकि अधम कर्म, गलत चिंतन और
विवशता उसकी प्रकृति बन गई है.
आइये हम सब आज ये संकल्प करें कि
किसी भी हालात में,
हम अच्छा सोचें और उससे भी ज़रूरी है
कि सच्चा सोचें.
क्योंकि सोच ही हमें महान और निम्न
बनाती है,
आइये महानता को चुनें और निम्नता को तजें,
कलुषित, घृणित, और अंधकारमय चिंतन को छोंड़,
एक नवीन, उज्जवल और सकारात्मक समाज को गढ़ें.
एक नवीन, उज्जवल और सकारात्मक समाज को गढ़ें.....
© सुशील
मिश्र
08/06/2012
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