बे-हिसी
(senseless, without feeling)
दस्तकें और हिचकियाँ
जब तलक मंज़ूर हैं,
गुफ़्तगू में आप – हम
तब तलक मशगूल हैं.
मना सियासत दोस्ती की
जड़ में मट्ठा (है मगर,
दिल की बातें दिल जो
समझे बस वही मक़बूल है.
शाख से पत्ते उड़े या
जड़ को ही कुछ हो गया,
खुदगर्ज़ियों में कौम का वो नूर शायद खो गया.
भारत तेरे टुकड़े
होंगे इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह,
दिल में झांकें हम
सभी, की ऐसा कैसे हो गया.
रंजिशों तक ठीक था
क्यों साजिशों पर आ गए,
मुतमईन इतने हुए के
बदमाशियों पे आ गए.
जानते हैं ये कोई
नादान हरकत थी नहीं,
बुद्ध गांधी से चले
और याकूब पर तुम आ गए.
हममें से ही थे एक वे, जो इस कदर पागल हुए,
घर से चले थे सीखने
और खुद ही यहाँ जाहिल हुए.
आग तो है लग चुकी
शोला बनाओ मत इसे,
ढूंढो उन आकाओं को जो
इनके लिए दलदल हुए.
चालाकियां
अइय्यारियाँ माना हुनर हैं आपके,
गुस्ताखियाँ बद्बख्तियाँ
माना शज़र हैं आपके.
मुल्क के गद्दार को
जो यूँ मसीहा कह रहे,
दिख रहा है सब हमें
क्या क्या फिकर हैं आपके.
वक्त का ये सिलसिला
यूँ ही नहीं आया यहाँ,
दिन में भी ये स्याह
मौसम यूँ ही नहीं छाया यहाँ.
तालीमी इदारे और
रहनुमा कुछ खोखले तो हैं ज़रूर,
तभी, अशफाक़उल्ला की जगह अफज़ल गुरु छाया यहाँ.
मुल्क है चौसर नहीं
जो मुकद्दर पे छोंड़ दें,
जंग है भभकी नहीं जो
खंज़र पे छोंड़ दें.
कानून को इतना कसें की
ख्वाब में भी भूलकर,
इस तरफ नज़रें भी
तिरछी करने के अरमां
छोड़ दे.
कल तलक जो नज़र सरहदों
की निगेहबान थी,
कल तलक जो बाज़ुएँ
सरहद पे एक ऐलान थीं.
आज ये क्या हो गया, उस आँख से आंसू गिरे,
जिसकी दिलेरी की
कहानी दुश्मनों तक आम थी.
आंसू न समझें बस इसे
ये ख्वाब का भी खून है,
नाम, नमक और निशान की
बेबसी का मजमून है.
मुल्क की खातिर, जो
दुश्मन को घुटनों पे लाता रहा,
अपनों ने की है बुज़दिली
तभी तो वो ग़मगीन है.
गौर से तो देखिये
उसकी आँखों में ज़रा,
साजिशों की बे-हिसी
का दिख रहा क्यूँ सिलसिला.
गर सियासत आँख मूंदे
बस यूँ ही बैठी रही,
दूर दीखता है नहीं अब
ज़लज़लों का काफ़िला.
© सुशील
मिश्र.
25/02/2016