अंतर्द्वंद
वक्त वक्त पे छोटी छोटी खुशियों ने पुकारा हमें, लेकिन,
हमने समंदर की चाह में ना जाने कितनी नदियों का दिल तोड़ा.
ऊँचा ख्वाब, ऊँचा ओहदा और ऊँचे करिश्मे की सोच ने,
हमारी इस ज़िंदगी को कहीं का ना छोंड़ा.
जानता था की लाख मुश्किलें आएँगी राह में लेकिन,
गांव छोंड़ा, शहर आया, दिल में ये तमन्ना लिए हुए.
के अपने जुनून, अपने ज़ज्बे और अपनी काबिलियत से,
एक दिन आसमां पे जाउंगा अपना वजूद लिए हुए.
सोते जागते उठते बैठते हर पल हर क्षण,
आसमां आसमां आसमां यही ख्वाब रहता था मन में.
तरक्की और ऊँचाई ने ईतना ऊपर उठाया,
की मैं देख भी नहीं पाया,
की क्या हो रहा है असली चमन में.
निस्स्संदेह आज मेरी मेहनत रंग लाई है,
गाँव छोडनें और शहर में बसने की कीमत मैंने पाई है.
धन दौलत रूपया पैसा महल जागीर,
आज मैंने सब कुछ कमाया है.
लेकिन,
पता नहीं क्यूं आज जब फुर्सत में,
अपने कीमती सोफों पर इत्मीनान से बैठने की सोचता हूँ,
तो जिन खेतों, खलिहानों, मेड़ों (पगडंडियों)और इन्दारों (कुआँ),
जिन बगीचों, छप्परों, बावडियों और दुआरों (द्वार),
से खीझ खाकर और जिन्हें गरीबी और दरिद्रता का मानक,
मानकर मैं वहाँ से भागा था.
वे सब मुझे बुला रहें हैं,
या यूँ कहें की मै इतनी दूर शानो शौकत में बैठकर भी,
सफलता की बुलंदियों पर पहुँच कर भी,
उन छुद्र चीजों और स्थानों की तरफ आकर्षित हो रहा हूँ.
मेरा मन समझ नहीं पा रहा है.
की ये क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है,
क्या ये मेरी उचाईयों पे पहुचने का का अंत है,
क्या ये मेरे अधोपतन (नीचे गिरना) की शुरुआत है,
क्या यह चिंतन और यह विचार,
मेरे अर्श से फर्श तक जाने की प्रक्रिया है.
ये विचार ये भावनाएँ ये चिंतन,
मेरे अंतर्मन को लगातार कुरेद रहे हैं,
और मैं स्वयं को इस मानसिक द्वन्द में उलझा हुआ,
इन सही गलत के विचारों में घिरा हुआ,
इस हानि लाभ के जोड़ घटानों में फंसा हुआ,
खुद को आज त्रिशंकु की स्थिति में पाता हूँ.
जो यह समझ ही नहीं पा रहा है,
जो यह निश्चित ही नहीं कर पा रहा है,
की मूल क्या है,
वास्तविकता क्या है.
आज जब हम ग्रहण (भोजन) घर के बाहर (होटेल) ,
और निष्कासन (फ्रेश) घर के अंदर (टोइलेट) करने लगे,
अर्थात घर का काम बाहर,
और बहार का काम घर में करने कि व्यवस्थाएं बदलने लगे.
अपने इतिहास, संस्कृति और परिपाटी को,
जितना संभव था तोड़ा मरोड़ा,
मिठाई को चोकलेट के लिए, रस को पेप्सी के लिए,
धोती कुर्ते को पैंट शर्ट और दीपक को कैंडल के लिए छोड़ा.
कमोबेश मेरे जैसी ही मेरे देश कि भी हालत हो गई है,
हमने पुरानी परम्पराओं, रीतियों, नीतियों
और शिक्षा, के विधान को,
विकसित बनने कि चाह में छोड़ा.
इस सही और गलत, इस अच्छे और खराब एवं
इस पुरातन और नवीन के अंतर्द्वंद में उलझा हुआ मन,
फिर से वहीं लौटना चाहता है,
जहां खुला आकाश, दूर दूर तक हरियाली और सुन्दर विहान है.
जब पुनः गाँव लौटा तब समझ में आया,
कि जीवन में कभी धूप है कभी छाँव है,
मन को नियंत्रित रखना और मूल से कभी ना भटकना,
असल में यही विधि का विधान है.
असल में यही विधि का विधान है.
असल में यही विधि का विधान है.
© सुशील मिश्र .
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