उलझन
पत्थरों में यहाँ जान
आने लगी,
फिजायें भी फिर
गुनगुनाने लगीं.
तुम नज़र से नज़र अब
मिला भी तो लो,
मोहब्बत तुम्हें फिर
बुलाने लगी.
ये देखो सजन ज़िंदगी
गा रही,
कहीं दूर से फिर सदा
आ रही.
तुम्हारे थे हम
तुम्हारे ही हैं,
वो वफ़ा वो कासम याद
अब आ रही.
फूल ने कांटों से आज
क्या है कहा?
पंथ ने पथिक को क्या
है बतला दिया?
फिर नज़ारे भी बेचैन
होने लगे
जब सफीने (पतवार) ने
मझधार को दिल दिया.
ये हांथों की रेखा
में दिखता नहीं,
ये जुबां पे भी जल्दी
से आता नहीं.
दिल की गहराइयों में
सुकूं जिसको है,
प्यार ही क्या है जो,
रब मिलाता नहीं.
पत्थरों में यहाँ जान
आने लगी,
फिजायें भी फिर
गुनगुनाने लगीं.
तुम नज़र से नज़र अब
मिला भी तो लो,
मोहब्बत तुम्हें फिर
बुलाने लगी.
© सुशील मिश्र.
15/11/2012
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