Thursday, March 7, 2013

आदमी का दर्द




आदमी का दर्द

प्यार का हर एक लफ्ज़ मुन्तज़िर सा हो गया,
रूहे नादानी बड़ी तो वो कलंदर हो गया.
देख दिल्ली आज तेरा ज़ख्म ही व्यापार है,
हमने जो सच्चाई कही तो बस बवंडर हो गया.

जिस्म को कोई यहाँ अब खुदा का घर कहता नहीं,
मन में सबके राम हैं कोई अब कहता नहीं.
देख ले परवरदिगार तेरी कारस्तानियाँ,
आदमी को आदमी अब आदमी कहता नहीं.

इन्साफ क्या? विश्वास क्या? सबकी यहाँ बोली लगी,
दुनिया बनी बाज़ार है हर एक की बोली लगी.
नवरात्रों का मेला यहाँ तो खूब सजधज से मना,
पर देवियों की आज तो हर चौराहे पे है बोली लगी.

कहीं चोरी कहीं डाका कहीं अस्मत से ही खिलवाड़ है,
जिसपे भरोसा किया वो ही यहाँ बेज़ार है.
बात मुझको अब समझ में ये तो आती ही नहीं,
कालिमा से ही भरा क्यों आज ये संसार है.

सोचें ज़रा समझें ज़रा मन को भी टटोलें ज़रा,
जिस राह पे हम बढ़ रहे उसको भी अब तोलें ज़रा.
वासनाएँ मन की सदा यूँ ही हमें भारमाएं ना,
इंसानियत की भावना मन में तो अब रख लें ज़रा.

कल का सूरज फिर नई ईक रोशनी देगा ज़रूर,
इंसान में इंसानियत का फिर जागेगा एक सुरूर.
देश क्या दुनिया को हमपर ऐतबार यूँ ही नहीं,
उनको यकीं है हम नया एक रास्ता देंगे ज़रूर.

© सुशील मिश्र.
07/03/2013




No comments: