Wednesday, April 24, 2013

देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा.


देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा.

देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा,
आदमी क्यों यहाँ भेड़िया हो रहा.
आबरू बच्चियों की भी सुरक्षित नहीं,
आदमी वासना में है क्यों खो रहा.

हर तरफ ही अंधेरा अंधेरा लगे,
ज़िंदगी का कहीं ना बसेरा लगे.
कालिमा से भरी हर दिशाएँ यहाँ,
रोशनी ना कहीं ना उजेरा लगे.
अब तो दिन में भी गुड़िया को डर सा लगे,
आदमी भी उसे आदमी ना लगे.
जब से घर में ही बाज़ार नें घर किया,
हर तरफ जल उठा है ज़हर का दिया.
हम सभी उस ज़हर के हैं आदी हुए,
और तभी से हमारा पतन हो रहा.
देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा...........

ज़िंदगी को डुबोया गलत चाह में,
आ गये हम बहुत गर्त की राह में.
बस किताबों में पढ़ना सही और गलत,
ज़िंदगी का यही फलसफा अब फकत.
बात व्यवहार में कोई नरमी नहीं,
हम बने जा रहें हैं क्यों इतने सख्त.
ज़िंदगी की नहीं कोई कीमत यहाँ,
बिक रही है सरेराह में ये मुफ्त.
भावना जबसे दूषित हमारी हुई,
बस तभी से हमारा पतन हो रहा.
देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा................

श्लोक चौपाइयाँ जब फिजाओं में थीं,
यज्ञ की गंध जब इन हवाओं में थीं.
आचरण शुद्ध था मानसों का यहाँ,
कर्म में भी सदा तब मिताई ही थी.
रिश्ते नातों की कोई नहीं यदि वकत,
अब ये सोचें क्या बदलाव है ये गलत.
आज दिल्ली नें देखें हैं जो ये कफ़न,
पाप के इस सितम का है भारी वज़न.
अब जगें हम सभी और करें कुछ जतन,
बस तभी महकेगा ये हमारा चमन.

देश में हर तरफ है ये क्या हो रहा,
आदमी क्यों यहाँ भेड़िया हो रहा.
आबरू बच्चियों की भी सुरक्षित नहीं,
आदमी वासना में है क्यों खो रहा.

© सुशील मिश्र.
24/04/2013

2 comments:

Unknown said...

Kya baat hai ...gud one yaar..

Unknown said...

Gud one yaar...nice