Monday, April 8, 2013

खामोशी छोड़कर बेबाक हो गया


खामोशी छोड़कर बेबाक हो गया

चुपचाप बसर की ज़िंदगी शिकवा नही किया,
दिल में बहुत था दर्द पर गिला नहीं किया.
जानता था कहाँ है इस जख्म का उनवान,
फिर भी उन्हें भुला दिया बलवा नहीं किया.

ज़िंदगी बिता दी मैंने तेरी बंदगी में पर,
तू भी अजब है मेरा नुकसान ही किया.
वैसे ही मेरी हालत सूखे की तरह थी,
फिर भी मैंने किसी का एहसान न लिया.

लड़ता रहा ग़मों से उफ़ तक नहीं किया,
मौके बहुत मिले पर गलत नहीं किया.
खामोशी था हथियार मेरा ये जानता था मैं,
पर उसको भी बोलने से मना नहीं किया.

दिखनें में वे सारे इंसान ही तो थे,
पर हालत उनकी देखकर अवाक हो गया.
आवाज़ उनकी बन सकूं बस इसी आस में,
खामोशी छोड़कर मैं बेबाक हो गया.


© सुशील मिश्र.
08/04/2013